सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/१४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ९६ )

आगे जाय देखैं तो एक ठौर कोमल पातो के बिछौने पर सुन्दर जड़ाऊ दरपन पड़ा है, लगीं उससे पूछने, जब बिरह भरा वह भी न बोला तब विन्होंने आपस में पूछा―कहो आली, यह क्यों कर लिया, विसी समयैं जो पिय प्यारी के मन की जानती थी उसने उत्तर दिय कि सखी जद प्रीतम प्यारी की चोटी गूँथन बैठे औं सुंदर बदन बिलोकने में अन्तर हुआ, तिस बिरियाँ प्यारी ने दरपन हाथ में ले पिय को दिखाया, तद श्रीमुख का प्रतिबिंब सनमुख आया। यह बात सुन गोपियाँ कुछ न कोपियाँ, बरन कहने लगीं कि उसने शिव पार्वती को अच्छी रीत से पूजा है औ बड़ा तप किया है, जौ प्रानपति के साथ एकांत में निधड़क बिहार करती है। महाराज, सब गोपी तो इधर बिरह मदमाती बक बक झक झक ढूँढती फिरतीही थीं, कि उधर श्रीराधिकाजी हरि के साथ अधिक सुख मान प्रीतम को अपने बस जान आपको सबसे बड़ा ठान, मन में अभिमान आन बोलीं―प्यारे, अब मुझसे चला नहीं जाता, काँधे चढ़ाय ले चलिये। इतनी बात के सुनते ही गर्वप्रहारी अंतरयामी श्रीकृष्णचंद ने मुसकुराय बैठकर कहा कि आइए, हमारे काँधे चढ़ लीजिये। जद वह हाथ बढ़ाय चढ़ने को हुई तद श्रीकृष्ण अंतरध्यान हुए। जो हाथ बढ़ाये थे तो हाथ पसारे खड़ी रह गई, ऐसे कि जैसे घन से मान कर दामिनी बिछड़ रही हो, कै चंद्र से चंद्रिकन रूस पीछे रह गई हो। और गोरे तन की जोति छूटि क्षिति पर छाथ यों छबि दे रही थी कि मानो सुंदर कंचन की भूमि पै खड़ी है। नैनों से जल की धार बह रही थी औ सुबास के बस जो मुख पास भँवर आय आय बैठते थे तिन्हें भी उड़ाय न सकती थी, और हाय हाय कर बन में बिरह की मारी इस भाँति रो रही थी अकेली जिसके रोने की धुन सुन सब रोते थे पशु पक्षी औ द्रुम बेली और यो कह रही थी―