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से बन के कंकर काँटे आ कसकते थे हमारे मन में। भोर के गये साँझ को फिर आते थे, तिस पर भी हमें चार पहर चार युग से जानते थे। जद सनमुख बैठ सुंदर बदन निहारती थीं, तद अपने जी मे बिचारती थीं कि ब्रह्मा कोई बड़ा मूरख है जो पलक बनाई है, हमारे इकटक देखने में बाधा डालने को।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, इसी रीत से सब गोपी बिरह की मारीं श्रीकृष्णचंद के गुन औ चरित अनेक अनेक प्रकार से गाय गाय हारीं, तिसपर भी न आए बिहारी। तब तो निपट निरास हो, मिलने की आस कर, जीने का भरोसा छोड़, अति अधीरता से अचेत हो, गिरकर ऐसे से पुकारीं कि सुनकर चर अचर भी दुखित भये भारी।


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