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बिराना मन धन ले जानते हो, पर किसी को कुछ गुन नहीं मानते। इतना कह आपस में कहने लगी―

गुन छाँड़ै औगुन गहै, रहै कपट मन भाय।
देखो सखी विचारि कै तासो कहा बसाय॥

यह सुन एक विनमे से बोलो कि सखी, तुम अलगी रहो, अपने कहे कुछ सोभा नहीं पातीं। देखो मैं कृष्णही से कहाती हूँ। यो कह विसने मुसकुरायके श्रीकृष्ण से पूछा कि महाराज, एक बिन गुन किये गुन मान ले, दूसरा किये गुन का पलटा दे, तीसरा गुन के पलटे औगुन करै, चौथा किसीके किये गुन को भी मन में न धरै। इन चारो में कौन भला है की कौन बुरा, यह तुम हमें समझाके कहो। श्रीकृष्णचंद बोले कि तुम सब मन दे सुनौ भला औ बुरा मै बुझा कर कहता हूँ। उत्तम तो वह है जो बिन किये करे, जैसे पिता पुत्र को चाहता है, और किये पर करने से कुछ पुन्य नहीं, सो ऐसे है जैसे बॉट के हेत गौ दूध देती है। गुन को औगुन माने तिसे शत्रु जानिये। सबसे बुरा कृतघ्नी जो किये को मेदे।

इतना बचन चुनतेही जब गोपियाँ आपस में एक एक को मुँह देख हँसने लगी, तब तो श्रीकृष्णचंद घबराकर बोले कि सुनौ मैं इन चार की गिनती में नही, जो तुम जानके हँसती हो, बरन मेरी तो यह रीति है कि जो मुझसे जिस बात की इच्छा रखता है तिसके मन की वॉछा पूरी करता हूँ। कदाचित तुम कहो कि जो तुम्हारी यह चाल है तो हमे बन में ऐसे क्यों छोड़ गये, इस का कारन यह है कि मैने तुम्हारी प्रीति की परीक्षा ली, इस बात का बुरा मत मानो, मेरा कहा सच्चही जानौ। यो कह फिर बोले―