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चौतोसवाँ अध्याय

श्रीशुकदेव मुनि बोले―राजा, जब श्रीकृष्णचंद ने इस ढब से रस के बचन कहे, तब तो सब गोपियाँ रिस छोड़ प्रसन्न हो उठ हरि से मिलि भाँति भाँति के सुख मान आनन्द मगन हो कुतूहले करने लगीं। तिस समै,

कृष्ण जोगमाया ठई, भये अंस बहु देह।
सब कौ सुख चाहत दियौ, लीला परम सनेह॥

जितनी गोपियाँ थीं तितने ही शरीर श्रीकृष्णचंद ने धर, उसी रासमंडल के चौतरे पर, सब को साथ ले फिर रास विलास को आरम्भ किया।

द्वै द्वै गोपी जोरे हाथा। तिन के बीच बीच हरि साथा॥
अपनी अपनी ढिग सब जाने। नहीं दूसरे को पहिचाने॥
अंगुरिन में अंगुरी कर दिये। प्रफुलित फिरे संग हरि लिये॥
बिच गोपी बिच नंद किशोर। सघन घटा दामिनि चहुँ ओर॥
स्याम कृष्ण गोपी ब्रज बाला। मानहुँ कनक नील मनि माला॥

महाराज, इसी रीति से खड़े होय गोपी और कृष्ण लगे अनेक अनेक प्रकार के यंत्रो के सुर मिलाय मिलाय, कठिन कठिन राग अलाप अलाप, बजाय बजाय गाने औ तीखी, चोखी, आड़ी, डौढ़ी, दुगन, तिगन की ताने उपजे ले ले बोल बताय बताय नाचने। औ आनन्द में ऐसे मगन हुए कि उनको तन मन की भी सुध न थी। कहीं इनका अंचल उघड़ जाता था, कहीं उनका मुकुट खिसल। इधर मोतियों के हार टूट टूट गिरते थे, उधर बनमाल।१०