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पसीने की बूँदे माथो पर मोतियों की लड़ी सी चमकती थीं औ गोपियों के गोरे गोरे मुखड़ो पर अलके यो बिखर रही थी, कि जैसे अमृत के लोभ से संपोलिये उड़कर चाँद को जा लगे होयँ। कभी कोई गोपी श्रीकृष्ण की मुरली के साथ मिलकर जील में गाती थी, कभी कोई अपनी तान अलग ही ले जाती थी औ जब कोई बंसी को छेक उसकी ताल समूची जो की तो गले से निकालती थी, तब हरि ऐसे भूल रहते थे कि जो बालक दरपन में अपनी प्रतिबिंब देख भूल रहै।

इसी ढब से गाय गाय, नाच नाच, अनेक अनेक प्रकार के हाव, भाव, कटाक्ष कर कर सुख लेते देते थे, औ परस्पर रीझ रीझ हँस हँस, कंठ लगाय लगाय, वस्त्र आभूपन निछावर कर रहे थे। उस काल ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र, आदि सब देवता औ गंधर्व अपनी अपनी स्त्रियो समेत विमानों में बैठे रास मंडली का सुख देख देख आनन्द से फूल बरसावते थे, और उनकी स्त्रियाँ वह सुख लख हौस कर मन में कहती थी कि जो जन्म ले ब्रज में जाती तो हम भी हरि के साथ रास बिलास करलीं। औ राग रागनियों का ऐसा समा बँधा हुआ था कि जिसे सुन के पौन पानी भी न बहती थी, औ तारामंडल समेत चन्द्रमा थकित हो किरनो से अमृत बरसाता था। इसमें रात बढ़ी तो छः महीने बीत गये औ किसी ने न जाना, तभी से उस रैन का नाम ब्रह्मरात्रि हुआ।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले―पृथ्वीनाथ, रास लीला करते करते जो कुछ श्रीकृष्णचंद के मन में तरंग आई तो गोपियो को लिये यमुनातीर पै जाय, नीर में पैठ, जल क्रीड़ा कर, श्रम मिटाय, बाहर आय, सब के मनोरथ पूरे कर बोले कि