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ही भय खाय घबरायके लगे पुकारने, हे कृष्ण, हे कृष्णा, वेग सुध ले, नहीं तो यह मुझे निगले जाता है। उनका शब्द सुनते ही सारे ब्रजवासी स्त्री या पुरुष नींद से चौंक नंदजी के निकट जाय, उजाला कर देखें तो एक अजगर उनको पाँव पकड़े पड़ा है। इतने में श्रीकृष्णचंदजी ने पहुँच सबके देखते ही जो उसकी पीठ में चरन लगाया तोही वह अपनी देह छोड़ सुंदर पुरुष हो प्रनान कर सनमुख हाथ जोड़ खड़ा हुआ। तब श्रीकृष्ण ने उससे पूछा कि तू कौन है औ किस पाप से अजगर हुआ था सो कह। वह सिर झुकाय विनती कर बोला-अंतरजामी, तुम सब जानते हो मेरी उतपति कि मैं सुदरसन नाम विद्याधर हूँ। सुरपुर में रहता था औ अपने रूप गुन के आगे गर्व से किसी को कुछ न गिनती थी।

एक दिन बिमान में बैठ फिरने को निकला तो जहाँ अंगिरा ऋषि बैठे तप करते थे, तिनके ऊपर हो सौ बेर आया गया। एक बेर जो उन्होने बिमान की परछांंई देखी तो ऊपर देख क्रोध कर मुझे श्राप दिया कि रे अभिमानी, तू अजगर सॉप हो।

इतनी बचन उनके मुख से निकला कि मैं अजगर हो नीचे गिरी। तिस समै ऋषि ने कहा था कि तेरी मुक्ति श्रीकृष्णचंद के हाथ होगी। इसीलिये मैंने नंदरायजी के चरन आन पकड़े थे जो आप आयके मुझे मुक्त करे। सो कृपानाथ, आपने आये कृपा कर मुझे मुक्ति दी। ऐसे कह विद्याधर तो परिक्रमा दे, हरि से आज्ञा ले, दंडवत कर, बिदा हो, बिमान पर चढ़ सुर लोक को गया और यह चरित्र देख सब ब्रजवासियों को अचरज हुआ। निदान भोर होतेही देवी का दरसन कर सब मिल बृंदावन आए।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेव मुनि बोले कि पृथ्वीनाथ, एक