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सैंतीसवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, एक दिन श्रीकृष्ण बलराम साँझ समै धेनु चरायके बन से घर को आते थे, इस बीच एक असुर अति बड़ा बैल बन आय गायो में मिला।

आकाश लौ देह तिनि धरी। पीठ कड़ी पाथर सी करी।
बड़े सींग तीछन दोउ खरे। रक्त नैन अति ही रिस भरे॥
पूँछ उठाय डकारतु फिरै। रहि रहि मूतत गोबर केरै॥
फड़कै कंध हिलावै कोन। भजे देव सब छोड़ बिमान॥
खुर स खोदै नदी करारे। पर्वत उथल पीठ सो डारे॥
सब कौ त्रास भयो तिहि काल। कंपहि लोकपाल दिगपाल॥
पुथ्वी हलै शेष थरहरै। तिय औं धेनु गर्भ भू परें॥

उसे देखतेही सब गाये तो जिधर तिधर फैल गईं औ ब्रजबासी दौड़ वहाँ आए, जहाँ सब के पीछे कृष्ण बलराम चले आते थे। प्रनाम कर कहा―महाराज, आगे एक अति बड़ा बैल खड़ा है, उससे हमें बचाओ। इतनी बात के सुनतेही अन्तरजामी श्रीकृष्णचंद बोले कि तुम कुछ मत डरो उससे, वह वृषभ का रूप बनकर आया है नीच, हमसे चाहता है अपनी मोच। इतना कह आगे जाय उसे देख बोले बनवारी, कि अब हमारे पास कपट तन धारी। लू और किसू को क्यौ डराता है, मेरे निकट किस लिये नहीं आता। जो बैरी सिंह का कहावत है, सो मृग पर नहीं धावता। देख मैं ही हूँ कालरूप गोविंद, मैने तुझसे बहुतों को मार के किया है निकंद।