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यो कह फिर ताल ठोक ललकारे―आ मुझसे संग्राम कर। यह बचन सुनते ही असुर ऐसे क्रोध कर धाया कि मानौ इंद्र का बज्र आया। जों जो हरि उसे हटाते थे त्यो त्यो वह सँभल सँभल बढ़ा आता था। एक बार जो इन्होने विसे दे पटका तो ही खिजलाकर उठा औ दोनों सींगों में उसने हरि को दबाया, तब तो श्रीकृष्णजी ने भी फुरती से निकल झट पाँव पर पाँव दे उसके सींग पकड़ यो मरोड़ा कि जैसे कोई भीगे चीर को निचोड़ै। निदान वह पछाड़ खाय गिरा औ उसका जी निकल गया। तिस समै सब देवता अपने अपने बिमानों में बैठ आनंद से फूल बरसोवने लगे औ गोपी गोप कृष्णजस गाने। इस बीच श्रीराधिकाजी ने आ हरि से कहा कि महाराज बृपभ रूप जो तुमने मारा इसका पाप हुआ, इससे अब तुम तीरथ न्हाय आओ तब किसी को हाथ लगाओ। इतनी बात के सुनते ही प्रभु बोले कि सब तीरथो को मैं ब्रजही में बुला लेता हूँ। यो कह गोवर्द्धन के निकट जाय दो औडे कुंड खुदवाए, तही सब तीरथ देह धर आए और अपना नाम कह कह उनमें जल डाल डाल चले गये। तब श्रीकृष्णचंद उसमें स्नान कर, बाहर आय, अनेक गोदान दे, बहुत से ब्राह्मन जिमाय शुद्ध हुए, औं विसी दिन से कृष्णकुंड, राधाकुंड करके वे प्रसिद्ध हुए।

यह प्रसंग सुनाय श्रीशुकदेव मुनि बोले कि महाराज, एक दिन नारद मुनि जी कंस के पास आए, औ उसका कोप बढ़ाने को जब उन्होंने बलराम औ स्याम के होने औ माया के आने औ कृष्ण के जाने का भेद समझाकर कहा तब कंस क्रोध कर बोला―नारद जी तुम सच कहते हो।