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अड़तीसवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जो श्रीकृष्णचंद ने केसी को मारा औ नारद ने जय स्तुति करी, पुनि हरि नै ब्योमासुर को हना तो सब चरित्र कहता हूँ, तुम चित्त दे सुनो कि भोर होते ही केसी अप्ति ऊँचा भयावना घोड़ा बन बूंदाबन में आया और लगा लाल लाल आँखै कर नथने चढ़ाय कान पूँँछ उठाय टाप टाप भूँ खोदने, हीस हीस कांधा कृपाय लाते चलाने।

उसे देखते ही ग्वालबालो ने भय खाय भाग श्रीकृष्ण से जा कहा। वे सुनके वहाँ आये, जहाँ वह था औ विसे देख लड़ने को फट बाँध ताल ठोक सिह की भाँति गरज कर बोले―अरे, जो तू कंसका बड़ा प्रीतम है औ घोड़ा आया है तो और के पीछे क्या फिरता है, आ मुझसे लड़ जो तेरा बल देखू। दीप पतंग की भाँति कब तक फिरेगा, तेरी मृत्यु तो निकट आन पहुँची है। यह बचन सुन केसी कोप कर अपने मन में कहने लगा कि आज इसको बल देखूँगा औ पकड़ ईख की भाँति चवाय कंस को कारज कर जाऊँगा।

इतना कह मुँह बाय के ऐसे दौड़ा कि मानो सारे संसार को खा जायगा। आतेही पहले जो उसने श्रीकृष्ण पर मुँह चलाया तो उन्होने एक बेर तो धकेल कर पीछे हटाया। जब दूसरी बेर वह फिर सँभल के मुख फैलाय धाया, तब श्रीकृष्ण ने अपना हाथ उसके मुँह में डाल लोह लाठ सा कर ऐसा बढ़ाया कि जिसने उसके दसो द्वार जा रोके, तब तो केसी घबरा जी से कहने लगा कि अब देह फँटती है, यह कैसी भई अपनी मृत्यु आप मुँह में