पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/१६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
उँतालीसवाँ अध्याय

श्रीशुकदेव मुनि बोले कि महाराज, कार्त्तिक बदी द्वादशी को तो केसी औ ब्योमासुर मारा गया और त्रयोदशी को भोर के तड़केही, अक्रूर कंस के पास आय बिदा हो रथपर चढ़ अपने मन में यो विचारता बृंंदाबन को चला कि ऐसा मैने क्या जप, तप, यज्ञ, दान, तीरथ, व्रत किया है, जिसके पुन्य से यह फल पाऊँँगा। अपने जाने तो इस जन्म भर कभी हरि का नाम नहीं लिया, सदा कंस की संगति में रहा, भजन का भेद कहाँ पाऊँ। हाँ अगले जन्म कोई बड़ा पुन्य किया हो, उस धर्म के प्रताप का यह फल हो तो हो जो कंस ने मुझे श्रीकृष्णचंद आनंदकंद के लेने को भेजा है, अब जाय उनका दरसन पाय जन्म सुफल करूँगा।

हाथ जोरि कै पायन परिहौ। पुनि पगरेनु सीस पर धरिहौ॥
पाप हरन जेई पग आहि। सेवत श्रीब्रह्मादिक ताहि॥
जे पग काली के सिर परे। जे पग कुच चंदन सी भरे॥
नाचे रास मंडली आछे। जे पग डोले गायन पाछै॥
जा पगरेनु अहिल्या तरी। जो पग में गंगा निसरी॥
बलि छलि कियौ इंद्र को काज। ते पग हौ देखौगो आज॥
मौ कौ सगुन होते हैं भले। मृग के झुंड दाहने चले॥

महाराज, ऐसे विचार फिर अक्रूर अपने मन में कहने लगा कि कहीं मुझे वे कंस का दूत तो न समझे। फिर आपही सोचा कि जिनका नाम अंतरजामी है, ऐसा कभी न समझेगे, बरन मुझे देखतेही गले लगाय दया कर अपना कोमल, कंवल सा कर मेरे सीस पर धरेगे। तब मै उस चंद्र बदन की