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चालीसवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि पृथ्वीनाथ, जब नन्दजी बातें कर चुके तब अक्रूर को कृष्ण बलराम सैन से बुलाय अलग ले गये।

आदर कर पूछी कुशलात। कहौ कका मथुरा की बात॥
हैं वसुदेव देवकी नीके। राजा बैर पज्यो तिनहीं के॥
अति पापी है मामा कंस। जिन खोयौ सिगरौ यदुवंस॥

कोई यदुकुल का महारोग जन्म ले आया है, तिसीने सब यदुबंसियों को सताया है। औ सच पूछो तो बसुदेव देवकी हमारे लिये इतना दुख पाते है, जो हमें न छिपाते तो वे इतना दुख ने पाते। यो कह कृष्ण फिर बोले―

तुमसों कहा चलत उनि कह्यो। तिन कौ सदा ऋनी हौं रह्यो॥
करतु होयँगे सुरत हमारी। संकट में पावत दुख भारी॥

यह सुन अक्रू रजी बोले कि कृपानाथू, तुम सब जानते हो, क्या कहूँगा कंस की अनीति, विसकी किसी से नहीं है प्रीति। बसुदेव औ उग्रसेन को नित मारने का विचार किया करता है, पर वे आज तक अपनी प्रारब्ध से बच रहे हैं और जद से नारद मुनि आय आप के होने का सब समाचार बुझाय के कह गये हैं, तद से बसुदेव जी को बेड़ी हथकड़ी में महा दुख में रक्खा है औ कल उसके यहाँ महादेव को यज्ञ हैं, धनुष धरा है, सब कोई देखने को आवेगे, सो तुम्हें बुलाने को मुझे भेजा है यह कहकर, कि तुम जय राम कृष्ण समेत नंदराय को यज्ञ की भेद सुद्धां