पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/१७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १२३ )

लिवाय लाओ, सो मैं तुम्हें लेने को आया हूँ। इतनी बात अक्रूर जी से सुन राम कृष्ण ने अनंदराय से कहा―

कंस बुलाये है सुनौ तात। कही अक्रूर कका यह बात॥
गोरस मेढ़े छेरी लेउ। धनुष यज्ञ है ताको देउ॥
सब मिल चलौं साथ अपने। राजा बोले रहत न बने॥

जब ऐसे समुझाय बुझायकर श्रीकृष्णचंद्रजी ने नंदजी से कहा, तब नंदरायजी ने उसी समै ढंढोरिये को बुलवाय सारे नगर में यों कह डोडी फिरवाय दी, कि कल सबेरेही सब मिल मथुरा को जायँगे, राजा ने बुलाया है। इस बात के सुनने से भोर होतेही भेट ले ले सकल बृजबासी आन पहुँचे औ नंदजी भी दूध, दही माखन, मेढ़े, बकरे, भैंसे ले सगड़ जुतवाय उनके साथ हो लिये और कृष्ण बलदेव भी अपने ग्वालबाल सखाओं को साथ ले रथ पर चढ़े।

आगे भये नंद उपनंद। सच पाछै हलधर गोविद॥

श्रीशुकदेवजी बोले कि पृथ्वीनाथ, एकाकी श्रीकृष्ण का चलना सुन सब ब्रज की गोपियाँ, अति घबराये व्याकुल हो घर छोड़ हड़बड़ाय उठ धाई, और कुढ़ती झखती शिरत पड़ती वहाँ आई, जहाँ श्रीकृष्णचंद का रथ था। आते ही रथ के चारों ओर खड़ी हो हाथ जोड़ विनती कर कहने लगी―हमें किस लिये छोड़ते हो ब्रजनाथ, सर्वस दिया है तुम्हारे हाथ। साध की तो प्रीति कभी घटती नही, कर की सी रेखा सदा रहती है, औ मूढ़ की प्रीति नहीं ठहरती, जैसे बालू की भीति। ऐसा तुम्हारा क्या अपराध किया है जो हमें पीठ दिये जाते हो। यो श्रीकृष्णचंद को सुनाय फिर गोपियाँ अक्रूर की ओर देख बोलीं―