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चढ़ चले तिस काल इधर से तो गोपियों समेत जसोदाजी अति अकुलाय रो रो कृष्ण कृष्ण कर पुकारती थीं औ उधर से श्रीकृष्ण रथ पर खड़े पुकार पुकार कहते जाते थे कि तुम घर जाओ किसी बात की चिंता मत करो, हम पाँच चार दिन में ही फिरकर आते हैं।

ऐसे कहते कहते औ देखते देखते जब रथ दूर निकल गया औ धूलि आकाश तक छाई, तिसमें रथ की ध्वजा भी नहीं दिखाई, तब निरास हो एक बेर तो सबकी सब नीर बिन भीन की भाँति तड़फड़ाय मूर्छा खाय गिरीं, पीछे कितनी एक बेर के चेत कर उठीं औ अवध की आस मन में धर, धीरज कर, उधर जसोदाजी तो सब गोपियो को ले बृंदावन को गई औ इधर श्रीकृष्णचंद्र सब समेत चले चले यमुना तीर आ पहुँचे तहाँ ग्वालबालो ने जल पिया औ हरि ने भी एक बड़ की छाँह में रथ खड़ा किया। जब अक्रूर जी न्हाने का विचारकर रथ से उतरे, तब श्रीकृष्णचंद्र ने नंदराय से कहा कि आप सब ग्वालोको ले आगे चलिये, चचा अक्रूर स्नान कर लें तो पीछे से हम भी आ मिलते हैं।

यह सुन सब को ले नंदजी आगे बढ़े औ अक्रूरजी कपड़े खोल हाथ पॉव धोय, आचमन कर तीर पर जाय, नीर में पैठ डुबकी ले पूजा, तर्पण, जप, ध्यान कर फिर चुभकी मार आँख खोल जल में देखे तो वहाँ रथ समेत श्रीकृष्ण दृष्ट आए।

पुनि उन देख्यौ सीस उठाय। तिहि ठाँ बैठे हैं यदुराय॥
करें अचंभौ हिये बिचारि। वे रथ ऊपर दूर मुरारि॥
बैठे दोऊ बर की छॉह। तिनहीं कौ देखो जल मॉह॥
बाहर भीतर भेद न लहो। साँचौ रूप कौन सो कहो॥