पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/१७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

एकतालीसवाँ अध्याय

श्री शुकदेवजी बोले कि महाराज, पानी में खड़े खड़े अक्रूर को कितनी एक बेर में प्रभु का ध्यान करने से ज्ञान हुआ, तो हाथ जोड़ प्रनाम कर कहने लगा कि करता हरता तुम्हीं हो भगवंत, भक्तों के हेतु संसार में आय धरते हो भेष अनंत, और सुर नर मुनि तुम्हारे अंस हैं, तुम्हीं से प्रकट हो, तुम्हीं में ऐसे समाते हैं, जैसे जल सागर से निकल सागर में समाता है। तुम्हारी महिमा है अनूप, कौन कह सके सदा रहते हो विराट सरूप। सिर स्वर्ग, पृथ्वी पांव, समुद्र पेट, नाभि आकाश, बादल केस, वृक्ष रोम, अग्नि मुख, दुसो दिसा कान, नैन चंद्र औ भानु, इद्र भुजा, बुद्धि ब्रह्मा, अहंकार रुद्र, गरजन बचन, प्रान पवन, जल वीर्य्य, पलक लगाना रात दिन, इस रूप से सदा विराजते हो। तुम्हें कौन पहचान सके। इस भाँति स्तुति कर अक्रूर ने प्रभु के चरन ध्यान धर कहा―छुपानाथ, मुझे अपनी सरन में रक्खो।