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पहले सोध कंस को देहुँ। तब अपलो दिखरावौ गैहु॥
सब की बिनती कहौ जु जाय। सुनि अक्रूर चले सिर नाय॥

चले चले कितनी एक बेर में रथ से उतरकर वहाँ पहुँचे, जहाँ कंस सभा किये बैठा था। इनको देखते ही सिहासन से उठ नीचे आय अति हित कर मिला और बड़े आदर मान से हाथ पकड़ ले जाय सिहासन पर अपने पास बैठाय, इनकी कुशल क्षेम पूछ बोला―जहाँ गये थे वहाँ की बात कहो।

सुनि अक्रूर कहै समझाय। ब्रज की महिमा कही न जाय॥
कहा नंद की, करो बड़ाई। बात तुम्हारी सीस चढ़ाई॥
राम कृष्ण दोऊ हैं आए। भट सबै ब्रजवासी लाए॥
डेरा किये नदी के तीर। उतरे गाड़ा भारी भीर॥

यह सुन कंस प्रसन्न हो बोला, अक्रूरजी, आज तुमने हमारा बड़ा काम किया जो राम कृष्ण को ले आए, अब घर जाय विश्राम करो।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाकाज, कंस की आज्ञा पाय अक्रूरजी तो अपने घर गये। वह सोच विचार करने लगा और जहाँ नंद उपनंद बैठे थे, तहाँ उनसे हलधर औ गोबिन्द ने पूछा―जो हम आपकी आज्ञा पावे तो नगर देख आवे। यह सुन पहले तो नंदरायजी ने कुछ खाने को मिठाई निकाल दी। उन दोनों भाइयों ने मिलकर खाय ली। पीछे बोले—अच्छा जाओ देख आओ, पर बिलम्ब मत कीजो।

इतना बचन नंदुमहर के मुख से निकलतेही अनिन्द कर दोनों भाई अपने ग्वालबाल सखाओं को साथ ले नगर देखने चले। आगे बढ़ देखे तो नगर के बाहर चारों ओर उपबन फूल