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ग्वाल बालो को पहराय बचे सो लुटाय दीजिए। भाई यो सुनाय सब समेत धोवियों के पास जाय हरि बोले―

हमकौ उज्जल कपरा देहु। राजहि मिलि आवे फिर लेहु॥
जा पहिरावनि नृप सो षैहै। तामें ते कछु तुम कौ दैहैं॥

इतनी बात के सुनतेही विनमे से जो वड़ा धाबी था सो हँस कर कहने लगा―

राखैं घरी बनाय, ह्वै आवौ नृप द्वार लौ।
तब लीजो पट आय, जो चाहो सो दीजियो॥

बन बन फिरत चरावत गैया। अहिर जाति काम उढ़ैया॥
नट को भेष बचाय कै आए। नृप अंबर पहरन मन भाए॥
जुरिके चले नृपति के पास। पहिरावनि लैवे की आस॥
नेक आस जीवन की जोऊ। खोवन बहुत अबहि पुनि सोऊ॥

यह बात धोबी की सुनकर हरि ने फिर मुसकुराये कहा कि हम तो सूधी चाल से माँगते है तुम उलटी क्यो समझते हो, कपड़े देने से कुछ तुम्हारा न बिगड़ेगा, वरन जस लाभ होगा। यह बचन सुन रजक झुंझलाकर बोला―राजा के बारे पहरने का मुँह तो देखो। मेरे आगे से जा, नहीं अभी मार डालता हूँ। इतनी बात के सुनतेही क्रोधकर श्रीकृष्णचंद ने तिरछा कर एक हाथ ऐसा मारा कि उसका सिर भुट्टा सा उड़ गया। तब जितने उसके साथी औ टहलुये थे सब के सब पोटे मोटे लादियाँ छोड़ अपना जीव ले भागे औ कंस के पास जाय पुकारे। यहाँ श्रीकृष्णजी ने सब कपड़े लेलिए ओ अपि पहन भाई को पहराय ग्वालबालो को बाँट, रहे सो लुटाय दिये। तिस समय ग्वालबाल अति प्रसन्न हो हो लगे उलटे पुलटे वस्त्र पहनने।