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कटि कस पग पहरें झगा, सूथन मेलें बाँछ।
बसन भेद जाने नहीं हँसत कृष्ण मन माँह॥

जो वहाँ से आगे बढ़े तो एक सूजी ने आय दंडवत कर खड़े होय कर जोड़ कहा―महाराज, मैं कहने को तो कंस का सेवक कहलाता हूँ पर मन से सदा अपही की गुन गाता हूँ, दया कर कहिये तो बागे पहिराऊँ जिससे तुम्हारा दास कहाऊँ।

इतनी बात उसके मुख से निकलतेही अंतरजामी श्रीकृष्णचंद ने विसे अपना भक्त जान निकट बुलाय कहा कि तू भले समय आया, अच्छा पहराय दे। तब तो उसने झटपट ही खोल उधेड़ कतर छाँट सीकर ठीक ठाक बनाय चुन चुन राम कृष्ण समेत सबको बागे पहराये दिये। उस काल नंदलाल विसे भक्ति दे साथ ले आगे चले।

तहाँ सुदामा माली आयो। आदर कर अपने घर लायो॥
सचही को माला पहराई। माली के घर भई बधाई॥


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