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औ कुबजा अपने घर जाय केसर चंदन से चौक पुराय, हरि के मिलने की आस मन में रख मंगलाचार करने लगी।

आवे तहाँ मथुरा की नारि। करैं अचंभौ कहैं निहारि॥
धनि धनि कुबजा तेरौ भाग। जाकौ बिधना दियौ सुहागर॥
ऐसा कहा कठिन तप कियौ। गोपीनाथ भेद भुज लियौ॥
हम नीके नहिं देखे हरी। तोको मिले प्रीति अति करी॥
ऐसे तहाँ कहत सब नारि। मथुरा देखत फिरत मुरारि॥

इस बीच नगर देखते देखते सब समेत प्रभु धनुष पौर पर जा पहुँचे। इन्हें अपने रंग राते माते आते देखतेही पौरिये रिसाय के वोले―इधर किधर चले आते हो गॅवार, दूर खड़े रहो, यह है राजद्वार। द्वारपालो की बात सुनी अनसुनी कर हरि सब समेत दुर्राने वहाँ चले गये, जहाँ तीन ताड़ लंबा अति मोटा भारी महादेव का धनुष धरा था। जातेही झट उठाय चढ़ाये सहज सुभावही खैंच यों तोड़ डाला कि जो हाथी गाडा तोड़ता है।

इसमें सब रखवाले जो कंस के बिठाये धनुष की चौकी देते थे सो चढ़ आए। प्रभु ने उन्हें भी मार गिराया। तिस समै पुरवासी तो यह चरित्र देख विचारकर निसंक हो आपस में यो कहने लगे कि देखो राजा ने घर बैठे अपनी मृत्यु आप बुलाई है, इन दोनों भाइयों के हाथ से अब जीता न बचेगा, और धनुष टूटने का अति शब्द सुन कंस भय खाय अपने लोगो से पूछने लगा, कि यह महाशब्द काहे को हुआ। इस बीच कितने एक लोग राजा के जो दूर खड़े देखते थे, वे मूड़ फिकार यो जो पुकारे कि महाराज की दुहाई, राम कृष्ण ने आय नगर में बड़ी धूम मचाई। शिव का धनुष तोड़ सच रखवालो को मार डाला।