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कपटी को पकड़ लाओ। पहले उन्हें मार पीछे इन दोनों को भी मार डालो। इतना बचन कंस के मुख से निकलतेही, भक्तों के हितकारी मुरारी सब असुरो को छिन भर में मार उछलके वहाँ जा चढ़े, जहाँ अति ऊँँचे मंच पर झिलम पहने, टोप दिये, फरी खाँड़ा लिये, बड़े ही अभिमान से कंस बैठा था। वह इनको काल समान निकट देखते ही भय खाय उठ खड़ा हुआ औ लगा थर थर काँपने।

मन से तो चाहा कि भागूँ, पर मारे लाज के भाग न सका। फरी खाँड़ा सँभाल लगा चोट चलाने। उस काल नंदलाल अपनी घात लगाये उसकी चोट बचाते थे औ सुर, नर, मुनि, गन्धर्व, यह महायुद्ध देख देख भयमान हो यो पुकारते थे―हे नाथ, हे नाथ, इस दुष्ट को बेग मारो। कितनी एक बेर तक मंच पर युद्ध रहा। निदान ग्रभु ने सबको दुखित जान उसके केस पकड़ मंच से नीचे पटका औं ऊपर से आप भी कूदे कि उसका जीव घटे से निकल सटका। तब सब सभा के लोग पुकारे–श्रीकृष्णचंद ने कंस को मारा। यह शब्द सुन सुर, नर मुनि सबको अनि आनंद हुआ।

करि अस्तुति पुनि पुनि हरष, बरख सुमन सुर बृंंद॥
मुदित बजावत दुन्दुभी, कहि जै जै नँदनंद॥
मथुरा पुर नर नारि, अति प्रफुलित सबकौ हियौ॥
मनहुँ कुमुद बन चारु, बिकसित हरि ससि मुख निरखि॥

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि धर्मावतार, कंस के मरतेही जो अति बलवान आठ भाई उसके थे सो लड़ने को चढ़ आए। प्रभु ने उन्हें भी मार गिराया।