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जब हरि ने देखा कि अब यहाँ राक्षस कोई नहीं रहा, तब कंस की लाथ को घसीट यमुना तीर पर ले आए, औ दोनों भाइयों ने बैठ विश्राम लिया। तिसी दिन से उस ठौर का नाम विश्रांत घाट हुआ।

आगे कंस का मरना सुन कंस की रानियाँ द्यौरानियो समेत अति व्याकुल हो रोती पीटती वहाँ आई, जहाँ यमुना के तीर दोनो बीर मृतक लिये बैठे थे, औ लगीं अपने पति का मुख निरख निरख, सुख सुमिर सुमिर, गुन गाय गाय, व्याकुल हो हो, पछाड़ खाय खाय मरने कि इस बीच करुनानिधान कान्ह करुनाकर उनके निकट जाय बोले।

माई सुनहु शोक नहि कीजै। मामा जू कौ पानी दीजै॥
सदा न को जीवत रहै। गूढ़ौ सो जो अपनौ कहै॥
मात-पिता सुत बंधु न कोई। जन्म मरन फिरही फिर होई॥
जौ लौ जालो सनमंद रही। तौही लौ भिलि कै सुख लहै॥

महाराज, जद श्रीकृष्णचंद ने रानियों को ऐसे समझाया तद विन्होने वहाँ से उठ धीरज धर यमुना तीर पै आ पति को पानी दिया औ आप प्रभु ने अपने हाथ कंस को आग दे उसकी गति की।


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(१) दोनों प्रतियो में माई शब्द है पर यह पद लल्लूलालजी ने श्रीमद् भागवत से ले लिया है जिसमें मामी शब्द है। यही शब्द यहाँ उपयुक्त भी है।