पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/१९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

छीआलीसवाँ अध्याय

श्रीशुकदेव मुनि बोले कि हे राजा, रानियाँ तो द्यौरानियो समेत वहाँ न्हाय धोय रोय राजमंदिर को गई औ श्रीकृष्ण बलराम बसुदेव देवकी के पास आय, उनके हाथ पाँव की हथकड़ियाँ बेड़ियाँ काट दंडवत कर हाथ जोड़ कर सनमुख खड़े हुए। तिस समै प्रभु का रूप देख वसुदेव देवकी को ज्ञान हुआ तो उन्होने अपने जी में निहचै कर जाना कि ये दोनों विधाता हैं। असुरो को मार भूमि का भार उतारने को संसार में औतार ले आए है।

जब बेसुदेव देवकी ने यो जी में जाना तब अंतरजामी हरि ने अपनी माया फैलाय दी, उसने उनकी वह मति हर ली। फिर तो विन्होंने इन्हें पुत्र कर समझा कि इतने में श्रीकृष्णचंद अतिदीसत्ता कर बोले―

तुम बहु दिवस लह्यो दुख भारी। करत रहे अति सुरत हमारी॥

इसमें हमारा कुछ अपराध नहीं क्योंकि जबसे आप हमें गोकुल में नंद के यहाँ रख आए तब से परबस थे, हमारा बस न था, पर मन में सदा यह आता था कि जिसके गर्भ में दस महीने रह जन्म लिया, विसे न कभी कुछ सुख दिया, न हम ही माता पिता का सुख देखा वृथा जन्म पराये यहाँ खोया, विन्होंने हमारे लिये अति बिपति सही, हमसे कुछ विनकी सेवा न भई, संसार में सामर्थी वेई हैं जो मा बाप की सेवा करते हैं। हम विनके ऋनी रहे, दहल न कर सके।