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पृथ्वीनाथ, जब श्रीकृष्णजी ने अपने मन का खेद यो कह सुनाया तब अति आनंद कर उन दोनो ने इन दोनों को हितकर कंठ लगाया औ सुख मान पिछला दुख सब गँवाया। ऐसे मात पिता को सुख दे दोनों भाई वहाँ से चले चले उग्रसेन के पास आए और हाथ जोड़कर बोले―

नानाजू अब कीजे राज। शुभ नक्षत्र नीकौ दिन आज।

इतना हरिमुख से निकलतेही राजा उग्रसेन उठकर आ श्रीकृष्णचंद के पाओ पर गिर कहने लगे, कि कृपनाथ मेरी विनती सुन लीजिये, जैसे आपने सब असुरो समेत कंस महादुष्ट को मार भक्तों को सुख दिया तैसेही सिहासन पै बैठ अब मधुपुरी का राज कर प्रजापालन कीजिये। प्रभु बोले―महाराज, यदुबंसियो को राज का अधिकार नहीं, इस बात को सब कोई जानता है, जब राजा जजाति बूढ़े हुए तब अपने पुत्र यदु को उन्होंने बुलाकर कहा कि अपनी तरुन अवस्था मुझे दे और मेरा बुढ़ापा तू ले। यह सुन उसने अपने जी में बिचारा कि जो मैं पिता को युवा अवस्था दूँगा तो यह तरुन हो भोग करैगा, इसमें मुझे पाप होगा, इससे नहीं करनाही भला है। ये सोच समझके उसने कहा कि पिता, यह तो मुझसे न हो सकेगा। इतनी बात के सुनतेही राजा जजाति ने क्रोध कर यदु को श्राप दिया कि जा तेरे बंस में राजा कोई न होगा।

इसी बीच पुर नाम उनका छोटा बेटा सनमुख आ हाथ जोड़ बोला-पिता, अपनी बृद्ध अवस्था मुझे दो और मेरी तरुनाई तुम लो। यह देह किसी काम की नहीं, जो आपके काम आवै तो इससे उत्तम क्या है। जब पुर ने यी कहा तब राजा जजाति