पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/१९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १४८ )

ऐसे कह फिर श्रीकृष्णचंद बोले कि हे पिता, तुम यह बात सुन कर कुछ बुरा मत मानो, हम अपने मन की बात कहते हैं, कि माता पिता तो तुम्हैही कहेंगे पर अब कुछ दिन मथुरा में रहेगे, अपने जात भाइयो को देख यदुकुल की उत्पत्ति सुनेंगे, और अपने माता पिता से मिल उन्हें सुख देगे। क्यौकि विन्होंने हमारे लिये बड़ा दुख सहा है जो हमें तुम्हारे यहाँ न पहुँचा आते तो वे दुख न पाते। इतना कह वस्त्र आभूषन नंद महर के आगे धर प्रभु ने निरमोही हो कहा―

मैया सों पालागन कहियो। हम पै प्रेम करै तुम रहियो॥

इतनी बात श्रीकृष्ण के मुँह से निकलतेही नंदराय तो अति उदास हो लगे लंबी साँसे लेने, औ ग्वालबाल बिचारकर मनहीं मन यो कहने कि यह क्या अचंभे की बात कहते है, इससे ऐसा समझ में आता है कि अब ये कपट कर जाया चाहते है, नहीं तो ऐसे निठुर बचन न कहते। महाराज, निदान उसमे से सुदामा नाम सखा बोला, भैया कन्हैया, अब मथुरा मे तेरा क्या काम है, जो निठुराई कर पिता को छोड़ यहाँ रहता है। भला किया कंस को मारा, सब काम सँवारा, अब नंद के साथ हो लीजिये, औ बृंदावन में चल राज कीजिये, यहाँ का राज देख मन में मत ललचाओ, वहाँ का सुख न पाओगे।

सुनौ, राज देख मूरख भूलते है औ हाथी घोड़े देख फूलते है। तुम बूंदाबन छोड़ कहीं मत रहो, वहाँ बसंत ऋतु रहती है, सघन बन औ यमुना की सोभा मन से कभी नहीं बिसरती। भाई, जो वह सुख छोड़ हमारा कहा न मान, भात पिता की माया तज यहाँ रहोगे, तो इसमें तुम्हारी क्या बड़ाई होगी।