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उग्रसेन की सेवा करोगे औ रात दिन चिंता में रहोगे, जिसे तुमने राज दिया विसी के अधीन होना होगा। इससे अब उत्तम यही है कि नंदराय को दुख न दीजे, इनके साथ ही लीजे।

प्रज बन नदी बिहार बिचारौ। गायन को मन ते न बिसारी॥
नहीं छॉड़िहै हेम ब्रजनाथ। चलिहै सबै तिहारे साथ॥

इतनी कथा कथ श्रीशुकदेव मुनि ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, ऐसे कितनी एक बातें कह दस बीसेक सखा श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ रहे, औ विन्होने नंदराय से बुझाकर कहा कि आप सब को ले निस्संदेह आगे बढ़िये, पीछे से हम भी इन्हें साथ लिये चले आते है। इतनी बात के सुनतेही हुए―

व्याकुल सबै अहीर, मानहुँ पन्नग के डसे।
हरिमुख लखत अधीर, टाढे काढ़े चित्र से॥

उस समै बलदेवजी नंदराय को अति दुखित देख समझाने लगे कि पिता, तुम इतना दुख क्यौ पाते हो, थोड़े एक दिनों में यहाँ का काज कर हम भी आते हैं, आपको आगे इस लिये बिदा करते है कि माता हमारी अकेली ब्याकुल होती होगी, तुम्हारे गये से विन्हें कुछ धीरज होगा। नंदजी बोले कि बेटा, एक बार तुम मेरे साथ चलो, फिर मिलकर चले आइयो।

ऐसे कह अति विकल हो, रहे नंद गहि पाय।
भई छीन दुति मंद मति, नैनन जल न रहाय॥

महाराज, जब माया रहित श्रीकृष्णचंदजी ने ग्वालबालो समेत नंद महर को महा व्याकुल देखा, तब मन में विचारा कि ये मुझसे बिछड़ेगे तो जीते न बचेगे, तोही उन्होने अपनी उस माया को छोड़ा जिसने सारे संसार को भुला रक्खा है, उनने