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आतेही नंदजी को सब समेत अज्ञान किया। फिर प्रभु बोले कि पिता, तुम इतना क्यौ पछताते हो, पहले यही बिचारी जो मथुरा औ बृंदावन में अंतर ही क्या है, तुमसे हम कहीं दूर तो नहीं जाते जो इतना दुख पाते हो, बृंदावन के लोग दुखी होगे, इस लिये तुम्हें आगे भेजते हैं।

जद ऐसे प्रभु ने नंद महर को समझाया तद वे धीरज धर हाथ जोड़ बोले—प्रभु, जो तुम्हारे ही जी में यो आया तो मेरा क्या बस है, जाता हूँ, तुम्हारा कहा दाल नहीं सकता। इतना बचन नैदजी के मुख से निकलते ही, हरि ने सब गोप ग्वालबालों समेत नंदराय को तो बृंदाबन बिदा किया औ आप कई एकसखाओ समेत दोनो भाई मथुरा में रहे। उस काल नंद सहित गोप ग्वाल

चले सकल मरा सोचत भारी। हारे सर्बसु भनहुँ जुआरी॥
काहू सुधि काहू चुधि नाहीं। लपत चरन परत मागमाही॥
जात बृंदावन देखत मधुबन। बिरह बिथा बाढ़ी व्याकुल तन॥

इसी रीति से जो तो कर बूंदाबन पहुँचे। इनका आना सुनतेही जसोदा रानी अति अकुलाकर दौड़ी आईं, और राम कृष्ण को न देख महा व्याकुल हो नंदजी से कहने लगीं―

अहो कंत सुत कहाँ गँवाए। बसन अभूषन लीने आए॥
कंचन फैंक काच घर राख्यौ। अमृत छाँड़ि मूढ विष चाख्यौ॥
पारस पाय अंध जो डारे। फिरि गुन सुनहि कपारहि मारै॥

ऐसे तुमने भी पुत्र गँवाए औ बसन आभूषन उनके पलटे ले आए। अब विन विन धन ले क्या करोगे। हे मूरख कंत, जिनके पलक ओट भये छाती फटे, कहो विन बिन दिन कैसे करे। जब उन्होंने तुमसे बिछड़ने को कहा, तब तुम्हारा हिया कैसे रहा।