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गद्य साहित्य का विकास

मनुय्य जिसके द्वारा अपने विचारों को एक दूसरे पर प्रकट करता है, उसे बोली या भाषा कहते हैं । भाषा की यह परिभाषा एक प्रकार से रूढ़ि सी मान ली गई है, यद्यपि इसके अंतर्गत वे संकेतादि भी आ जाते है जिनसे आपस में बहुत कुछ विचार प्रकट किए जाते हैं या किए जा सकते है। परंतु वे इस परिभाषा के अंतर्गत नहीं समझे जाते। इन भाषाओ का नामकरण प्रायः उन देशो, प्रातो या जातियों के नाम पर किया जाता है जिन देशो, प्रांतो या जातियो मे वे बोली जाती हैं। संसार की लगभग सभी भाषाओ का नाम किसी देश या जाति के नाम पर होता है।

आपस मे बात-चीत करते या आवश्यकतानुसार कुछ बोलते समय पद्य का कभी व्यवहार नहीं किया जाता, सर्वदा गद्य मे ही विचार प्रकट किया जाता है। परंतु यह एक आश्चर्य की बात है कि जिस किसी भाषा के साहित्य को उठाकर देखिए, सब का आरंभ पध से ही हुआ है। क्या उन प्रतिभाशाली आदि कवियो के मस्तिष्क में छंद ही भरे थे ? क्या वे छंदो में ही बातचीत करते थे ? हर एक साहित्य के प्रारंभिक ग्रंथों में बहुधा देखा जाता है कि उनमें मनुष्यो के धार्मिक विचारो, हर्ष, शोक आदि मानसिक विकारो और दैवी चरित्रो का वर्णन होता है। कविता मनुष्य का हार्दिक उद्गार होने के कारण पहले ही निकल पड़ती है। इन विषयो के लिए पद्य ही अधिक उपयुक्त है और कविता ही के द्वारा