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वे आए। उनसे इन्होने अपने मन का संदेह सब कहके पूछा, कि महाराज, अब हमें क्या करना उचित है सो दुयो कर कहिये। गर्ग मुनि बोले―पहले सब जात भाइयो को नौत बुलाइये, पीछे जात कर्म कर राम कृष्ण का जनेऊ दीजे ।

इतना बचन पुरोहित के मुख से निकलतेही वसुदेवजी ने नगर मे नौता भेज सब ब्राह्मन औ यदुबंसियों को नौत बुलाया, वे आए, तिन्हें अति आदर मान कर बिठाया।

उस काल पहले तो वसुदेवजी ने विधि से जात कर्म कर जन्म पत्री लिखवाय, दुस सहस्र गौ, सोने के सींग, तांबे की पीठ, रूपे के खुर समेत, पाटंबर उढ़ाय, ब्राह्मनो को दीं, जो श्रीकृष्ण जी के जन्म समै संकल्पी थी। पीछे मंगलाचार करवाय बेद की विधि से सब रीति भॉति कर राम कृष्ण का यज्ञोपवीत किया, औ उन दोनो भाइयो को कुछ दे विद्या पढ़ने भेज दिया।

वे चले चले अवंतिकापुरी का एक सांदीपन नाम ऋषि महा पंडित औ बड़ा ज्ञानवान काशीपुरी में था, उसके यहॉ आए। दंडवत कर हाथ जोड़ सनमुख खड़े हो अति दीनता कर बोले―

हम पर कृपा करौ ऋषि राय। विद्या दान देहु मन लाय।।

महाराज, जब श्रीकृष्ण बलरामजी ने सांदीपन ऋषि से यो दीनता कर कहा, तब तो विन्ह ने इन्हें अति प्यार से अपने घर में रक्खा औ लगे बड़ी कृपा कर पढ़ावने। कितने एक दिनो में ये चार वेद, उपवेद, छः शास्त्र, नौ व्याकरन, अठारह पुरान, मंत्र, जंत्र, तंत्र, आगम, ज्योतिष, वैदक, कोक, संगीत, पिंगल पढ़ चौदह विधा निधान हुए। तब एक दिन दोनों भाइयों ने हाथ जोड़ अति बिनती कर गुरु से कहा कि महाराज, कहा है जो