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यह सुन श्रीकृष्ण बलराम गुरुपत्नी औ गुरु को प्रनाम कर, रथ पर चढ़ उनके पुत्र लाने के निमित्त समुद्र की ओर चले, औ चले चले कितनी एक बेर में तीर पर जा पहुँँचे। इन्हे क्रोधवान आते देख सागर भयमान हो मनुष शरीर धारन कर बहुत सी भेट ले नीर से निकल तीर पर डरता काँपता सोही आ खड़ा हुआ, औ भेंट रख दंडवत कर हाथ जोड़ सिर नवाय अति विनती कर बोला―

बड़ौ भाग प्रभु दरसन दयौ। कौन काज इत आवन भयौ॥

श्रीकृष्णचंद बोले―हमारे गुरुदेव यहाँ कुनबे समेत नहाने आए थे, तिनके पुत्र कौ जो तू तरंग से बहाय ले गया है, तिसे ला दे, इसी लिये हम यहाँ आए है।

सुन समुद्र बोल्यौ सिर नाय। मैं नहिं लीनौं वाहि बहाय॥
तुम सबहीं के गुरु जगदीश। राम रूप बाँध्यौ हो ईस॥

तभी से मै बहुत डरता हूँ, औ अपनी मर्यादा से रहता हूँ। हरि बोले―जो तूने नहीं लिया तो यहाँ से और कौन उसे ले गया। समुद्र ने कहा―कृपानाथ, मैं इसका भेद बताता हूँ कि एक संखासुर नाम असुर संख रूप मुझ में रहता है, सो सब जलचर जीवों को दुख देता है, औ जो कोई तीर पै न्हाने को आता है विसे पकड़ कर ले जाता है। कदाचित वह आपके गुरु सुत को ले गया होय तो मैं नहीं जानता, आप भीतर पैठ देखिये।

यो सुन कृष्ण धसे मन लाय। माँझ समुंदर पहुँचे जाय॥
देखत ही संखासुर मार्यो। पेट फाड़कै आहर डायो॥
तामें गुरु को पुत्र न पायौ। पछताने बलभद्र सुनायौ॥

कि भैया, हमने इसे बिन काज मारा। बलरामजी बोले―