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जो आदिपुरुष अबिनासी, शिव बिरंच का करता, न जिसके माता, न पिता, न भाई, न बंधु, तिसे तुम अपनी पुत्र जान मानते हो, औ सदा उसीके ध्यान में मन लगाये रहते हो वह तुमसे कब दूर रह सकता है। कहा है―

सदा समीप प्रेमबस हरी। जन के हेतु देह जिव धरी॥
जाको बैरी मित्र न कोई। ऊँच नीच कोऊ किन होई॥
जोई भक्ति भजन मन धरै। सोई हरि सो मिल अनुसरै॥

जैसे भृंगी कीट को ले जाता है, औ अपने रूप बना देता है, और जैसे कँवल के फूल में भौरी मुँद जाती है, औ भौरा रात भर उसके ऊपर गूँजता रहता है, विसे छोड़ और कहीं नहीं जाता, तैसे ही जो हरि से हित करता है औ उनका ध्यान धरता है, तिसे वे भी आप सा बना लेते हैं औ सदा विसके पास ही रहते हैं।

यों कह फिर ऊधो जी बोले किं अब तुम हरि को पुत्र कर मत जानौ, ईश्वर कर मानौ। वे अंतरजामी भक्तहितकारी प्रभु आय दरसन दे तुम्हारा मनोरथ पूरा करंगे, तुम किसी बात की चिन्ता न करो।

महाराज, इसी रीति से अनेक अनेक प्रकार की बातें कहते कहते औ सुनते सुनते, जब सबै रात बितीत भई औ चार घड़ी पिछली रही, तब नंदरायजी से ऊधोजी ने कहा कि महाराज, अब दधि मथने की बिरियाँ हुई, जो आपकी आज्ञा पाऊँ तो यमुना स्नान करि आऊँ। नंदमहर बोले―बहुत अच्छा। इतना कह वे तो वहाँ बैठे सोच बिचार करते रहे और ऊधोजी उठ झट रथ में बैठे यमुना तीर पर आये। पहले वस्त्र उतार देह शुद्ध करी, पीछे नीर