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अड़तालीसवाँ अध्याय

श्रीशुकदेव मुनि बोले―पृथीनाथ, जब ऊधोजी जप कर चुके, तब नदी से निकल बस्त्र आभूषन पहन रथ में बैठ जो कालिन्दी तीर से नंदगेह की ओर चले, तों गोपी को जल भरने को निकली थीं तिन्होने रथ दूर से पंथ में आते देखा। देखते ही आपस में कहने लगीं कि यह रथ किसका चला आता है, इसे देख लो तब आगे पाँव बढ़ाओ। यो सुन विनमें से एक गोपी बोली कि सखी, कहीं वही कपटी अक्रूर तो न आया होय, जिसने श्रीकृष्णचन्द को ले जाय मथुरा में बसाया, और कंस को मरवाया। इतना सुन एक और उनमें से बोली—यह विश्वासघाती फिर काहे को आया, एक बेर तो हमारे जीवनमूल को ले गया, अब क्या जीब लेगा? महाराज, इसी भाँति की आपस मे अनेक अनेक बातें कह,

ठाढ़ी भई तहाँ ब्रजनारि। सिर ते गागरि धरी उतारि॥

इतने में जो रथ निकट आया तो गोपियाँ कुछ एक दूर से ऊधोजी को देखकर आपस में कहने लगीं कि सखी, यह तो कोई स्याम बरन, कँवल नैन, मुकुट सिर दिये, बनमाल हिये, पीतांबर पहरे, पीतपट ओढ़े, श्रीकृष्णचंद सा रथ में बैठा हमारी ओर देखता चला आता है। तब तिनहीं में से एक गोपी ने कहा कि सखी, यह तो कल से नंद के यहाँ आया है, ऊधो इसका नाम है, औ कृष्णचंद ने कुछ संदेसा इसके हाथ कह पाठाया है।

इतनी बात के सुनतेही गोपियाँ एकांत ठौर देख, सोच संकोच छोड़ दौड़कर ऊधोजी के निकट गईं, है हरि का हितू जान