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दंडवत कर कुशल क्षेम पूछ हाथ जोड़ रथ के चारो ओर घिरके खड़ी हुईं। उनका अनुराग देख ऊधोजी भी रथ से उतर पड़े, तब सब गोपियाँ विन्हे एक पेड़ की छाया में बैठाये आप भी चारो ओर घिरके बैठीं, औ अति प्यार से कहने लगी–

भली करी ऊधो तुम आए। समाचार माधो के लाए॥
सदा समीप कृष्ण के रहौ। उनको कह्यो सँदेसौ कहौ॥
पठए मात पिता के हेत। और न काहू की सुधि लेत॥
सर्वसु दीनौ उनके हाथ। अरझे प्रान चरन के साथ॥
अपने ही स्वारथ के भये। सबही कों अब दुख दै गये॥

औ जैसे फलहीन तरवर को पंछी छोड़ जाता है, तैसे हरि हमें छोड़ गये। हमने उन्हें अपना सर्बस दिया, तौ भी वे हमारे न हुए। महाराज, जब प्रेम में मगन होय इसी ढब की बाते बहुत सी गोपियो ने कहीं, तब ऊधोजी उनकी प्रेम की दृढ़ता देख जो प्रनाम करने को उठा चाहते थे तोंही किसी गोपी ने एक भौरे को फूल पर बैठता देख उसके मिस ऊधो से कहा―

अरे मधुकर! तैने माधव के चरन कॅवल का रस पिया है, तिसी से तेरा नाम मधुकर हुआ, औ कपटी का मित्र है, इसीलिये तुझे विसने अपना दूत कर भेजा है। तू हमारे चरन मत परसे, क्योकि हम जाने हैं, जितने स्याम बरन है तितने सब कपटी हैं, जैसा तू है तैसेई हैं स्याम, इससे तू हमैं मत करे प्रनाम। जो तू फूल फूल का रस लेता फिरता है औ किसी का नहीं होता, तो वे भी प्रीति कर किसी के नहीं होते। ऐसे गोपी कह रही थी कि एक भौरा और आया। विसे देख ललिता नाम गोपी बोली―

अहो भ्रमर तुम अलगे रहौ। यह तुम जाय मधुपुरी कहौ॥