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कि धन्य है इन गोपियो को औ इनकी दृढ़ता को जो सर्वस छोड़ श्रीकृष्णचंद के ध्यान में लीन हो रही है। महाराज, ऊधोजी तो उनका प्रेम देख मनही मन सराहतेही थे कि उस काल सच गोपी उठ खड़ी हुई औ ऊधोजी को बड़े आदर मान से अपने घर लिवाय ले गईं। उनकी प्रीति देख इन्होने भी वहाँ जाय भोजन किया, औ विश्राम कर श्रीकृष्ण की कथा सुनाय विन्हें बहुत सुख दिया। तब सब गोपी ऊधोजी की पूजा कर, बहुत सी भेट आगे धर, हाथ जोड़ अति विनती कर बोलीं―ऊधो जी, तुम हरि से जाय कहियो कि नाथ आगे तो तुम बड़ी कृपा करते थे, हाथ पकड़ अपने साथ लिए फिरते थे, अब ठकुराई पाय नगरनारि कुबजा के कहे जोग लिख भेजा, हम अबला अपवित्र अब तक गुरुमुख भी नहीं हुईं, हम ज्ञान क्या जाने।

उन सो बालापन की प्रीति। जाने कहाँ जोग की रीति॥
वे हरि क्यो न जोग दे जात। यह न संदेसे की है बात॥
ऊधो यो कहियो समझोय। प्रान जात हैं राखे आय॥

महाराज, इतनी बात कह सब गोपियाँ तो हरि का ध्यान कर मगन हो रहीं औ ऊधोजी विन्हें दंडवत कर वहाँ से उठ रथ पर बैठ गोबर्धन में आए। वहाँ कई एक दिन रहे फिर वहाँ से जो चले तो जहाँ जहाँ श्रीकृष्णचंदजी ने लीला करी थी तहाँ तहाँ गये, औ दो दो चार चार दिन सब ठौर रहे।

निदान कितने एक दिवस पीछे फिर वृंदावन में आए, औ नन्द जसोदाजी के पास जा हाथ जोड़कर बोले―आपकी प्रीति देख मै इतने दिन ब्रज में रहा, अब आज्ञा पाऊँ तो मथुरा को जाऊँ।

इतनी बात के सुनतेही जसोदा रानी दूध दही माखन औ

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