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उनचासवाँ अध्याय

श्रीशुकदेव मुनि बोले कि महाराज, एक दिन श्री कृष्ण बिहारी भक्तहितकारी कुजा की प्रीति बिचार, अपना बचन प्रतिपालने को ऊधो को साथ ले उसके घर गये।

जब कुबजा जान्य हरि आए। पाटंबर पॉवड़े बिछाए॥
अति आनंद लये उठि आगे। पूरब पुन्य पुञ्ज सब जागे॥
ऊधो कौ आसन बैठारि। मंदिर भीतर से मुरारि॥

वहाँ जाय देख तो चित्रशाला में उजला बिछौना बिछा है, उस पर एक फूलो से सँवारी अच्छी सेज बिछी है, तिसी पर हरि जो बिराजे औ कुबजा एक ओर मंदिर में जाय सुगंध उबटन लगाय, न्हाय धोय, कंघी चोटी कर, सुथरे कपड़े गहने पहर आपको नखसिख से सिगार, पान खाय, सुगंध लगाय, ऐसे राव चाव से श्रीकृष्णाचंद के निकट आई कि जैसे रति अपने पति के पास आई होय। औ लाज से घूँँघट किये प्रथम मिलन का भय उर लिये, चुप चाप एक ओर खड़ी हो रही। देखते ही श्रीकृष्णचंद आनंदकंद ने उसे हाथ पकड़ अपने पास बिठाय लिया औ उसका मनोरथ पूरन किया।

तब उठि के ऊधो ढिग आए। भई लाज हँसि नैन नवाए॥

महाराज, यो कुबजा को सुख दे ऊधोजी को साथ ले श्रीकृष्णचंद फिर अपने घर आए, औ बलरामजी से कहने लगे कि भाई, हमने अक़ूरजी से कहा था कि तुम्हारा घर देखने जायँगे