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सो पहले तो वहाँ चलिए, पीछे, विन्हें हस्तिनापुर को भेज वहाँ के समाचार मँगवावे।

इतना कह दोनों भाई अक्रूर के घर गये। वह प्रभु को देखते ही अति सुख पाय, प्रनाम कर, चरनरज सिर चढ़ाय, हाथ जोड़ बिनती कर बोला―कृपानाथ, अपने बड़ी कृपा की जो आय दुरसन दिया, औ मेरा घर पवित्र किया। यह सुन श्रीकृष्णचंद बोले―कका इतनी बड़ाई क्यो करते हो, हम तो आपके लड़के है। यो कह फिर सुनाया कि कका आपके पुन्य से असुर तो सब मारे गये, पर एकही चिंता हमारे जी में है जो सुनते हैं कि पंडु बैकुंठ सिधारे, औ दुर्योधन के हाथ से पाँचों भाई है दुखी हमारे।

कुंती फुफू अधिक दुख पावै। तुम बिन जाय कौन समझावे॥

इतनी बात के सुनते ही अकूरजी ने हरि से कहा कि आप इस बात की चिंता न कीजे, मैं हस्तिनापुर जाऊँगा औ विन्हें समझाय वहाँ की सुध ले आऊँगा।