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पचासवाँ अध्याय

श्रीशुकदेव मुनि बोले कि पृथीनाथ, जब ऐसे श्रीकृष्णजीने अक्रूर के मुख से सुना, तब उन्हें पंडु की सुधि लेने को बिदा किया। वे रथ पर बैठ चले चले कई एक दिन में मथुरा से हस्तिनापुर पहुंचे, औ रथ से उतर जहाँ राजा दुर्योधन अपनी सभा में सिहासन पर बैठा था तहाँ जाय जुहार कर खड़े हुए। इन्हें देखतेही दुर्योधन सभा समेत उठकर मिला, औ अति आदर मान से अपने पास बिठाय इनकी कुशल क्षेम पूछ बोला―

नीके सरसेन बसुदेव। नीके हैं मोहन बलदेव॥
उग्रसेन राजा किहि हेत। नाहिन काहू की सुधि लेत॥
पुत्रहि मार करत है राज। तिन्हे न काहू सो है काज॥

ऐसे जब दुर्योधन ने कहा तब अक्रूर सुन चुप हो रहा है औ मनहीं मन कहने लगा कि यह पापियो की सभा है, यहाँ मुझे रहना उचित नही, क्योकि जो मैं रहूँगा तो वह ऐसी अनेक बाते कहेगा सो मुझसे कब सुनी जायंगी, इससे यहाँ रहना भला नहीं।

यो विचार अक्रूर जी वहाँ से उठ विदुर को साथ ले पंडु के घर गये, तहाँ जाय देखै तो कुंती पति के सोक में महा व्याकुल हो रो रही है। उसके पास जा बैठे औ लगे समझाने कि माई, बिधना से कुछ किसी का बस नहीं चलता, औ सदा कोई अमर हो जीता भी नहीं रहता। देह धर जीव दुख सुख सहता है,