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यह कह तुम्हारे पास भेजा है कि फूफी से कहियो किसी बात से दुख न पावे, हम वेग ही तुम्हारे निकट आते है।

महाराज, ऐसे श्रीकृष्ण की कही बाते कह अक्रूरजी कुंती को समझाय बुझाय आसा भरोसा दे बिदा हो बिदुर को साथ ले धृतराष्ट्र के पास गये, औ उससे कहा कि तुम पुरखा होय ऐसी अनीति क्यों करते हो, जो पुत्र के बस होय अपने भाई का राजपाट ले भतीजो को दुख देते हो। यह कहाँ का धर्म है जो ऐसा अधर्म करते हो।

लोचन गये न सूझे हिये। कुल बहि जाय पाप के किये।

तुमने भले चंगे बैठे बिठाये क्यों भाई का राज लिया, औ भीम युधिष्ठिर को दुख दिया। इतनी बात के सुनतेही धृतराष्ट्र अक्रूर का हाथ पकड़ बोला कि मैं क्या करूँ, मेरा कहा कोई नहीं सुनता, ये सब अपनी अपनी मत से चलते है, मैं तो इनके सोही मूरख ही रहा हूँ, इनसे इनकी बातो में कुछ नहीं बोलता, एकांत बैठ चुपचाप अपने प्रभु का भजन करता हूँ। इतनी बात जो धृतराष्ट्र ने कही तो अक्रूरजी दंडवत कर वहाँ से उठ रथ पर चढ़ हस्तिनापुर से चले चले मथुरा नगरी में आए।

उग्रसेन वसुदेव सो, कही पंडु की बात।
कुंती के सुत महा दुखी, भये छीन अति गात॥

यो उग्रसेन वसुदेवजी से हस्तिनापुर के सब समाचार यह अक्रूरज फिर श्रीकृष्ण बलरामजी के पास जा प्रनाम कर हाथ जोड़ बोले―महाराज, मैंने हस्तिनापुर में जाय देखा, आपकी फूफी औ पाँचो भाई कौरो के हाथ से महादुखी हैं। अधिक क्या कहूँगा, आप अन्तरजामी हैं, वहाँ की अवस्था औ विपरीत तुमसे