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का दुख दूर करने के हेतु अवतार लिया है, अब अग्नितन धारन कर असुररूपी बन को जलाय, भूमि का भार उतारिये। यह सुन श्रीकृष्णचंद उनको साथ ले उग्रसेन के पास गये औ कहा कि महाराज, हमें तो लड़ने की आज्ञा दीजै, और अप सब यदुबंसियों को साथ ले गहू की रक्षा कीजै।

इतना कह जो मात पिता के निकट आए, तो सब नगरनिवासी घिर आए, औं लगे अति व्याकुल हो कहने कि हे कृष्णा, हे कृष्ण, अब इन असुरो के हाथ से कैसे बचे। तब हरि ने मात पिता समेत सब को भयातुर देख समझाके कहा कि तुम किसी भाँति चिन्ता मत करो। यह असुरदल जो तुम देखते हो, सो पल भर में यहाँ का यही बिलाय जायगा कि जैसे पानी के बलूले पानी में बिलाय जाते है। यो कह सबको समझाय बुझाय ढाढ़स बँधाय उनसे विदा हो प्रभु जो आगे बढ़े तो देवताओं ने दो रथ शस्त्र भर इनके लिये भेज दिये। वे आये इनके सोहीं खड़े हुए तब ये दोनो भाई उन दोनों रथ में बैठ लिये।

निकसे दोऊ यदुराय। पहुँचे सुदल में जाय॥

जहाँ जरासंध खड़ा था तहाँ जा निकले, देखतेही जरासन्ध श्रीकृष्णचंद से अति अभिमान कर कहने लगा―अरे तू मेरे सोही से भाग जा मैं तुझे क्या मारूँ, तू मेरी समान को नहीं जो मैं तुझ पर शस्त्र चलाऊँ, भला बलराम को मैं देख लेता हूँ। श्रीकृष्णचंद बोले―अरे मूरख अभिमानी, तू यह क्या बुकता है, जो सूरमा होते है सो बड़ा बोल किसी से नहीं बोलते, सबसे दीनता करते हैं, काम पड़े अपना बल दिखाते हैं, और जो अपने मुँह अपनी