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बड़ाई मारते हैं सो क्या कुछ भले कहाते है। कहा है कि गरजता है सो बरसता नहीं, इससे बृथा बकवाद क्यो करता है।

इतनी बात के सुनतेही जरासंध ने जो क्रोध किया, तों श्रीकृष्ण बलदेब चल खड़े हुए। इनके पीछे वह भी अपनी सब सेना ले धाया औ उसने यो पुकारके कह सुनाया―अरे दुष्टो, मेरे आगे से तुम कहाँ भाग जाओगे, बहुत दिन जीते बचे। तुमने अपने मन में क्या समझा है। अब जीते न रहने पओगे, जहाँ सब असुरो समेत कंस गया है तहाई सब यदुबंसियो समेत तुम्हें भी भेजूँगा। महाराज, ऐसा दुष्ट बचन उस असुर के मुख से निकलतेही, कितनी एक दूर जाय दोनों भाई फिर खड़े हुए। श्रीकृष्णजी ने तो सब शस्त्र लिये औ बलरामजी ने हल मूसल। जों असुरदल उनके निकट गया तो दोनों बीर ललकार के ऐसे टूटे कि जैसे हाथियो के यूथ पर सिंह टूटे, औ लगा लोहा बाजने।

उस काल मारू जो बाजता था, सो तो मेघ सा गाजता था, औ चारो ओर से राक्षस का दल जो घिर आया था, सो दल बादल सा छाया था। औ शस्त्रों की झड़ सी लगी थी। उसके बीच श्रीकृष्ण बलराम युद्ध करते ऐसे शोभायमान लगते थे, जैसे सघन घन में दामिनी सुहावनी लगती है। सब देवता अपने अपने बिमानो पर बैठे आकाश से देख देख प्रभु का जस गाते ये, औ उन्हीं की जीत मानने थे, और उग्रसेन समेत सब यदुवंसी अति चिन्ता कर मनही मन पछताते थे कि हमने यह क्या किया, जो श्रीकृष्ण बलराम को असुर दल में जाने दिया।

इतनी कथा सुनाथ श्रीशुकदेवजी बोले कि पृथ्वीनाथ―जब लड़ते लड़ते असुरो की बहुत सी सेना कट गई, तब बलदेवजी ने