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महाराज, ऐसे मनही मन विचार क्रोध कर उस सोते हुए को एक लात मार कालयवन बौला―अरे कपटी, क्या मिसकर साधु की भॉति निचिताई से सो रहा है, उठ, मैं तुझे अबहीं मारता हूँ। यो कह इसने उसके ऊपर से पीतांबर झटक लिया। वह नींद से चौक पड़ा और जो क्सिने इसकी ओर क्रोध कर देखा तो यह जल बल भस्म हो गया। इतनी बात सुनते राजा परीक्षित ने कहा―

यह शुकदेव कहौ समझाय। को वह रह्यौ केंदरी जाय॥
ताकी दृष्ट भस्म क्यौ भयौ। कृाने वाहि महा बर दुयौ॥

श्रीशुकदेव मुनि बोले पृथीनाथ, इक्ष्वाकुवंसी क्षच्री मानधाता का बेटा मुचकुन्द अतिबली महाप्रतापी जिसका अरिदल दलन जस छाय रहा नौचंड, एक समै सब देवता असुरो के सताये निपट घबराये मुचकुन्द के पास आये, औ अति दीनता कर उन्होने कहा―महाराज, असुर बहुत बढ़े, अब तिनके हाथ से बच नही सकते, बेग हमारी रक्षा करो। यह रीतिं परंपरा से चली आई है कि जब जब सुर मुनि ऋषि प्रबल हुए हैं, तब तब उनकी सहायता क्षत्रियो ने करी है।

इतनी बात के सुनते ही मुचकुन्द उनके साथ हो लिया, औ जाके असुरो से युद्ध करने लगा। इसमें लड़ते लड़ते कितने ही जुग बीत गये तत्र देवताओ ने मुचकुन्द से कहा कि महाराज, आपने हमारे लिये बहुत श्रम किया अब कहीं बैठ बिश्राम लीजिये औ देह को सुख दीजिये।

बहुत दिननि कीनौ संग्राम। गयौ कुटुम्ब सहित धन धाम॥
रह्यौ न कोऊ तहाँ तिहारौ। ताते अब जिन घर पग धारौ॥

और जहाँ तुम्हारा मन माने तहाँ जाओ। यह सुन मुचकुन्द