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वहाँ आए जहाँ कालयवन का कटक खड़ा था, औ आतेही दोनों उनसे युद्ध करने लगे। निंदान लड़ते लड़ते जब म्लेच्छ की सेना प्रभु ने सब भारी तब बलदेवजी से कहा कि भाई, अब मथुरा की सब सम्पति ले द्वारका को भेज दीजे। बलरामजी बोले—बहुत अच्छा। तब श्रीकृष्णचंद ने मथुरा का सब धन निकलवाय भैंसो, छकड़ो, ऊटो, हाथियों पर लदवाय द्वारका को भेज दिया। इस बीच फिर जरासन्ध तेईसही अक्षौहिनी सेना ने मथुरा पुरी पर चढ़ि आया, तब श्रीकृष्ण बलराम अति धबरायके निकले औ उसके सनमुख जा दिखाई दें विसके मन का संताप मिटाने को भाग चले, तद मन्त्री ने जरासन्ध से कहा कि महाराज, आपके प्रताप के आगे ऐसा कौन बली है जो ठहरे, देखो वे दोनों भाई कृष्ण बलराम, छोड़के सब धन धाम, लेके अपना प्रान, तुम्हारे त्रास के मारे नंगे पाओं भागे चले जाते हैं। इतनी बात मन्त्री से सुन जरासन्ध भी यो पुकारकर कहता हुआ सेना ले उनके पीछे दौड़ा।

काहे डर के भागे जात। ठाढे रहौ करौ कछु बात॥
परत उठत कंपत क्यौं भारी। आई है ढिग मीच तिहारी॥

इतनी कथा कह श्रीशुकदेव मुनि बोले कि पृथीनाथ, जब श्रीकृष्ण औ बलदेवजी ने भाग के लोक रीति दिखाई, तब जरासन्ध के मन से पिछला सब शोक गया औ अति प्रसन्न हुआ, ऐसा कि जिसका कुछ बरनन नहीं किया जाता। आगे श्रीकृष्ण बलराम भागते भागते एक गौतम नाम पर्वत, ग्यारह जोजन ऊँचा था, तिसपर चढ़ गये और उसकी चोटी पर जाय खड़े भये।

देख जरासन्ध कहै पुकारि। शिखर चढे बलभद्र मुरारि॥
अंब किम हो जायँ पलाय। या पर्वत को देहु जलाय॥