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वह कविता की भाषा बनाई गई होगी। मौखिक गद्य के आरंभ होने के कई शताब्दियों के अनंतर लिखित गद्य का आरम्भ होना निश्चित समझना चाहिए। हिंदी गद्य का सबसे प्राचीन नमूना महाराज पृथ्वीराज और रावल समरसिंह के तेरहवी शताब्दी के दानपत्रों में मिलता है-यदि वे सच्चे कहे जा सकें तो। पंद्रहवीं शताब्दी के आरंभ में महात्मा गोरखनाथ जी को होना माना जाता है जो एक मत के प्रवर्तक और प्रसिद्ध महात्मा हो गए है। इन्होने हिंदी में कई पद्य की और एक गद्य की पुस्तक लिखी है। इसके अनंतर दो शताब्दियो तक की किसी गद्य पुस्तक का पता अभी तक नहीं चला है।

वस्तुतः हिंदी गद्य का आरंभ सोलहवी शताब्दी मे हुआ मानना चाहिए, क्योंकि उस समय के प्रणीत ग्रंथ प्राप्त हैं और उसके अनंतर गद्य पुस्तको का प्रणयन बराबर जारी रहा। यह काल हिदी के लिए बड़े गौरव का है जिसमें वैष्णव भक्तों ने अपने हरिभजन से इसके साहित्य-भंडार को पूर्ण किया है। श्री महाप्रभु वल्लभाचार्य जी का वि० सं० १५३५ मै प्रादुर्भाव हुआ था। इनकी और इनके पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथजी की अमृतमुयी शिक्षाओं की हिंदी साहित्य पर कितना प्रभाव पड़ा, यह प्रत्यक्ष ही है। केवल एक सूरसागर की ही तरंगो से किसी भाषा का साहित्य-रत्नाकर परिपूर्ण समझा जा सकता है। इसी समय महाप्रभुजी के पुत्र गो० विठ्ठलनाथजी ने हिंदी गद्य की आदि पुस्तक श्रृंगाररसमंडन लिखी है। गो० विठ्ठलनाथजी के पुत्र गो० , गोकुलनाथजी ने अपने दादा महाप्रभुजी के ग्रंथ, सिद्धांतरहस्य पर सिद्धांतरहस्यवार्ता नामक टीका लिखी। उन्होने वनयात्रा, चौरासी