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कलसियाँ बिजली सी चमकती हैं, बरन बरन की ध्वजा पताका फहराय रही है, खिड़की, झरोखों, मोखो, जालियो से सुगंध की लपटे आय रहीं हैं, द्वार द्वार सपल्लव केले के खंभ औ कंचन कलस भरे धरे है, तोरन बंदनवारे बँधी हुई हैं, औं घर घर आनंद के बाजन बाज रहे है, ठौर ठौर कथा पुरान औ हरिचर्चा हो रही है, अठारह बरन सुख चैन से बास करते हैं, सुदरसनचक्र पुरी की रक्षा करता है।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले कि राजा, ऐसी जो सुंदर सुहावनी द्वारकापुरी, तिसे देखता देखता वह राजा उग्रसेन की सभा में जा खड़ा हुआ और असीस कर वहाँ इसने पूछा कि श्रीकृष्णचंदजी कहाँ बिराजते हैं, तब किसी ने इसे हरि का मंदिर वताय दिया। वह जो द्वार पर जाय खड़ा हुआ, तो द्वारपालो ने इसे देख दंडवत कर पूछा―

को हौ आप कहाँ से आए। कौन देश की पाती लाए॥

यह बोला―ब्राह्मन हूँ औ कुंडलपुर का रहनेवाली, राजा भीष्मक की कन्या रुक्मिनी उसकी चीठी देने आया हूँ। इतनी बात के सुनतेही पौरियो ने कहा―महाराज, आप मंदिर में पधारिये श्रीकृष्णचंद सोही सिहासन पर विराजते है। बचन सुन्न ब्राह्मण जो भीतर गया तो हरि ने सिहासन से उतर दंडवत कर अति आदर मान किया औ सिंहासन पर बिठाय चरन धोय चरनामृत लिया और ऐसे सेवा करने लगे जैसे कोई अपने इष्ट की सेवा करे। निदान प्रभु ने सुगंध उबटन लगाय, न्हिलाय धुलाये पहले तो उसे पदरसे भोजन करवाया, पीछे बीड़ा दे केसर चंदन से चरच फूलों की माला पहिराय, मनिमय मंदिर में ले

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