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चौअनवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजा, श्रीकृष्णचंद ने ऐसे उस ब्राह्मन को ढाढ़स बँधाय फिर कहा―

जैसे घिसके काठ ते, काढ़हि ज्वाला जारि।
ऐसे सुँदरि ल्यायहौ, दुष्ट असुरदल मारि॥

इतना कह फिर सुथरे वस्त्र, आभूषन मनमानते पहन, राजा उग्रसेन के पास जाय प्रभु ने हाथ जोड़कर कहा―महाराज, कुण्डलपुर के राजा भीष्मक ने अपनी कन्या देने को पत्र लिख, पुरोहित के हाथ मुझे अकेला बुलाया है, जो आप आज्ञा दे तो जाऊँ औ उसकी बेटी ब्याह लाऊँ।

सुनकर उग्रसेन यो कहै। दूर देस कैसे मान रहै।
तहाँ अकेले जात मुरारि। मत काहू सी उपजे रारि॥

तब तुम्हारे समाचार हमें यहाँ कौन पहुँचावेगा। यो कह पुनि उग्रसेन बोले कि अच्छा जो तुम वहाँ जाया चाहते हो तो अपनी सब सेना साथ ले दोनो भाई जाओ औ ब्याह कर शीघ्र चले आओ। वहाँ किसीसे लड़ाई झगड़ा न करना, क्योंकि तुम चिरंजीव हो तो सुन्दरि बहुत आय रहैगी। आज्ञा पाते ही श्रीकृष्ण- चंद बोले कि महाराज, तुमने सच कहा पर मैं आगे चलता हूँ, अपि कटक समेत बलरामजी को पीछे से भेज दीजेगा।

ऐसे कह हरि उग्रसेन बसुदेव से बिदा हो, उस ब्राह्मन के निकट आये और रथ समेत अपने दारक सारथी को बुलवाया। वह प्रभु की आज्ञा पाते ही चार घोड़े का रथ तुरंत जोत लाया,