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तब श्रीकृष्णचंद उसपर चढ़े औ ब्राह्मन को पसि बिठाय द्वारका से कुण्डलपुर को चले। जो नगर के बाहर निकले तो देखते क्या है कि दहिनी ओर तो मृग के झुंड के झुंड चले जाते है औ सन- मुख से सिह सिहनी अपनी भक्ष लिये गरजते आते हैं। यह शुभ सगुन देख ब्राह्मन अपने जी में विचार कर बोला कि महाराज, इस समै इस शकुन के देखने से मेरे विचार में यह आता है कि जैसे ये अपना काज साधके आते है, तैसेही तुम भी अपना काज सिद्धकर आओगे। श्रीकृष्णचंद बोले―आपकी कृपा से। इतना कह हरि वहाँ से आगे बढ़े औ नये नये देस, नगर, गाँव देखते देखते कुण्डलपुर में जा पहुँचे, तो तहाँ देखा, कि ठौर ठौर व्याह, की सामा जो संजोय धरी है तिससे नगर की छवि कुछ और की और हो रही है।

झारे गली चौहटे छावे। चोआ चन्दन सो छिरकावे॥
पोय सुपारी झौरा किये। बिच बिच कनक नारियर दिये॥
हरे पात फ्ल फूल अपार। ऐसी घर घर बंदनवार॥
ध्वजा पत्ताका तोरन तने। सुदेब कलस कंचन के बने॥

और घर घर में आनन्द हो रहा है। महाराज, यह तो नगर की सोभा थी औ राजमंदिर में जो कुतूहल हो रहा था, उसका वरनन कोई क्या करे, वह देखते ही बन आवे। आगे श्रीकृष्णचंद्र ने सब नगर देख आ राजा भीष्भक की बाड़ी में डेरा किया औ शीतल छाँह में बैंठ ठंढे हो उस ब्राह्मन से कहा कि देवता तुम पहले हमारे आने की समाचार रुक्मिनीजी को जा सुनाओ, जो वे धीरज धर अपने मन का दुख हरे। पीछे वहाँ का भेद हमे आ बताओ, जो हम फिर उसका उपाय करे। ब्राह्मन