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वैष्णवों की बात और दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता नामक तीन ग्रंथ और लिखकर हिदी गद्य की नींव दृढ़ कर दी। इनमें अंतिम पुस्तक के इनकी होने मे शंका है। अष्टछाप के कवि नंददासजी ने दो गद्य ग्रंथो की रचना की, और इन्हीं महात्माओ के समसामयिक हरिरायजी भी थे, जिन्होने गद्य में तीन पुस्तके लिखी ।

सं० १६८० में जटमल कवीश्वर ने गोरा-बादल की कथा नामक पुस्तक पद्य में लिखी जिसके अनुवाद में खड़ी बोली को अधिक मेल है। पंडित वैकुंठमणि शुक्ल ने दो गद्य ग्रंथों का ब्रजभाषा में प्रणयन किया। अठारहवीं शताब्दी के आरंभ में दामोदरदास जी ने मार्कण्डेय पुराण को राजपूतानी भाषा में अनुवाद किया । सुरति मिश्र ने भी इसी समय वैतालपचीसी लिखी। भगवानदास ने गता पर भाषामृत टीका की, अमरसिह ने सतसई पर अमरचंद्रिका नामक और अप्रनारायणदास और वैष्णवदास ने भक्तमाल पर भक्तिरसबोधिनी टीकाएँ लिखीं। उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में रसराज पर बख्तेश को दीका हुई।

विक्रमी उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में हिदी-गद्य-साहित्य का आरंभ हुआ है, ऐसा कहना पूर्वोक्त गद्य ग्रंथो के विवरण से भ्रममूलक सिद्ध हो गया। यदि यह कहा जाय कि पूर्वोक्त पुस्तको की भापा खड़ी बोली नहीं थी तो इसका उत्तर यह है कि गोराबादल की कथा की भाषा खड़ी बोली ही कही जायगी। पर उस पुस्तक की रचना हुए लगभग तीन शताब्दियों' व्यतीत हो चुकी थीं, इसलिए खड़ी बोली के गद्य का उन्नीसवीं शताब्दी में जन्म कहा जाता है। अब यह विचारणीय है कि इनका जन्मदाता कौन