पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/२५१

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हमारी सब सेना ले श्रीकृष्ण के न पहुँचते न पहुँचते शीघ्र कुंडल- पुर जाओ औ उन्हें अपने संग कर ले आओ। राजा की आज्ञा पाते ही बलदेवजी छप्पन करोड़ यादव जोड़ ले कुंडलपुर को चले। उस काल कटक के हाथी काले, धौले, धूमरे दलबादल से जनाते थे औ उनके स्वेत स्वेत दाँत बगपांति से। धौसा मेघसा गरजता था औ शस्त्र बिजली से चमकते थे। राते, पीले बागे पहने घुड़- चढ़ो के टोल के टोल जिधर तिधर दृष्ट आते थे, रथो के तातो के तातें झमझमाते चले जाते थे, तिनकी शोभा निरख निरख, हरप हरप देवता अति हित से अपने अपने बिमानो पर बैठे, आकाश से फूल बरसाय श्रीकृष्णचंद आनंदकंदकी जै मनाते थे। इस बीच सब दल लिये चले, चले, कुण्डलपुरमें हरि के पहुँचतेही, वलरामजी भी जा पहुँचे। यो सुनाय फिर श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, श्रीकृष्णचंद रूपसागर, जगतउजागर तो इस भाँति कुण्ड- लपुर पहुँच चुके थे, पर रुक्मिनी इनके आने का सजाचार न पाय

बिलख बदन चितवै चहुँ ओर। जैसे चंद मलिन भये भोर॥
अति चिन्ता सुन्दरि जिय बाढ़ी। देखे ऊँच अटा पर ठाढ़ी॥
चढ़ि चढ़ि उझकै खिरकी द्वार। नैननि ते छांड़े जलधार॥

बिलख बदन अति मलिन मन, लेत उसास निसास।
व्याकुल बरषा नैन जल, सोचत कहति उदास॥

कि अब तक क्यौ नहीं आए हरी, विनका तो नाम है अंतर जामी, ऐसी मुझ से क्या चूक पड़ी जो अब लग विन्होने मेरी सुध न ली, क्या ब्राह्मन वहाँ नही पहुँचा, कै हरि ने मुझे कुरूप जान मेरी प्रीति की प्रतीत न करी, कै जरासन्ध का आना सुन प्रभु न आए। कल व्याह का दिन है औं असुर आय पहुँचा।