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जो वह कल मेरा कर गहेगा, तो यह पापी जीव हरि बिन कैसे रहैगा। जप, तप, नेम, धर्म कुछ आड़े न आया, अब क्या करूँ और किधर जाऊँ। अपनी बरात ले आया सिसुपाल, कैसे बिरमे प्रभु दीनदयाल।

इतनी बात जब रुक्मिनी के मुँह से निकली तब एक सखी ने तो कहा कि दूर देस बिन पिता बँधु की आज्ञा हरि कैसे आवेगे, औ दूसरी बोली कि जिनका नाम है अंतरजामी दीनदयाल, वे बिन आए न रहैगे, रुक्मिनी, तू धीरज धर, व्याकुल न हो। मेरा मन यह हामी भरता है कि अभी आय कोई यो कहता है कि हरि आए। महाराज, ऐसे वे दोनों आपस में बत कहाव कर रही थीं कि वैसे में ब्राह्मन ने जाय असीस दे कहा कि श्रीकृष्णचंदजी ने आय राजबाड़ी में डेरा किया औ सच दल लिये वलदेवजी पीछे से आते है। ब्राह्मन को देखते और इतनी बात के सुनते ही, रुक्मिनीजी के जी में जी आया, और उन्होंने उस काल ऐसा सुख माना कि जैसे तपी तप का फल पाय सुख माने।

आगे भीरुक्मिनीजी हाथ जोड़, सिर झुकाय, उस ब्राह्मन के सनमुख कहने लगीं कि आज तुमने आय हरि का आगमन सुनाय मुझे प्रानदान दिया। मैं इसके पलटे क्या दूँ। जो त्रिलोकी की माया दूँ तो भी तुम्हारे ऋन से उतरन न हूँ। ऐसे कह मन मार सुकचाय रहीं तद वह ब्राह्मन अति सन्तुष्ट हो आशीर्वाद कर वहाँ से उठ राजा भीष्मक के पास गया और उसने श्रीकृष्ण के आने का ब्यौरा सब समझाय के कहा। सुनते प्रमान राजा भीष्मक उठ धाया औ चला चला वहाँ आया, जहाँ बाड़ी में श्रीकृष्ण