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वलराम सुखधाम बिराजते थे। आतेही अष्टांग अनाम कर, सनमुख खड़े हो, हाथ जोड़के कहा राजा भीष्मक ने―

मेरे मन बच हे तुम हरी। कहा कहो जो दुष्टनि करी॥

अब मेरा मनोरथ घूरन हुआ जो अपने आय दरसन दिया। यों कह प्रभु के डेरे करवाय, राजा भीष्मक तो अपने घर आय चिन्ता कर ऐसे कहने लगा―

हरि चरित्र जाने सब कोई। का जाने अब कैसी होई॥

और जहाँ श्रीकृष्ण बलदेव थे तहँ नगरनिवासी क्या स्त्री क्या पुरुष, आय आय, सिर नाय नाय प्रभु का जस गाय गाय सराहि सराहि आपस में यो कहते थे कि रुक्मिनी जोग बर श्रीकृष्णही है, विधना करै यह जरी जुरै औ चिरंजीव रहै। इस बीच दोनों भाइयों के कुछ जो जी में आया तो नगर देखने चले। उप समैं ये दोनो भाई जिस हाट, बाट, चौहटे में हो जाते थे तही नर नारियो के ठट्ट के ठट्ठ लग जाते थे, औ वे इनके ऊपर चोआ, चंदन, गुलाबनीर, छिड़क छिड़क, फूल बरसाय बरसाय, हाथ बढ़ाय बढ़ाय प्रभु को आपस में यो कह कह बताते थे।

नीलांबर ओढ़े बलराम। पीतांबर पहने घनश्याम॥
कुण्डल चपल मुकुट सिर धरे। कँवलनयन चाहत मन हरे॥

औ ये देखते जाते थे। निदान सब नगर औ राजा सिसुपाल का कटक देख ये तो अपने दल में आए, औं इनके आने की समाचार सुन राजा भीष्मक का बड़ा बेटा अति क्रोध कर अपने पिता के निकट आय कहने लगा कि सच कही कृष्ण ह्यांं किसका कलाया आया, यह भेद मैने नहीं पाया, बिन बुलाए यह कैसे आया। व्याह कीज है सुख का धाम, इसमें इसका है क्या