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लिये, कुछ कुछ मुसकराती ऐसे सबके बीच मंदगति जाती थी कि जिसकी शोभा कुछ बरनी नहीं जाती। आगे श्रीकृष्णचंद को देखते ही सब रखवाले भूले से खड़े हो रहे औ अंतरपट उनके हाथ से छूट पड़ा। इसमें मोहनी रूप से रुक्मिनीजी को जो उन्होंने देखा तो और भी मोहित हो ऐसे सिथल हुए कि जिन्हें अपने तन मन की भी सुध न थी।

भृकुटी धनुष चढ़ाय, अंजन बरुनी पनच कै।
लोचन बान चलाय, मारे पै जीवत रहे॥

महाराज, उस काल सब राक्षस तो चित्र के से कड़े खड़े देखते ही रहे औ श्रीकृष्णाचंद सबके बीच रुक्मिनी के पास रथ बढ़ाय जाय खड़े हुए। प्रानपति को देखतेही उसने सकुचकर मिलने को जो हाथ बढ़ाया, तो प्रभु ने बॉए हाथ से उठाय उसे रथ पर बैठायी।

कांपत गात सकुच मन भारी। छोड़ सबन हरि संग सिधारी॥
जो बैरागी छांडै गेह। कृष्ण चरन सो करै सनेह॥

महाराज, रुक्मिनीजी ने तो जप, तप, ब्रत, पुन्य किये को फल पाया औ पिछली दुख सब गँवाया। बैरी शस्त्र अस्त्र लिये खड़े मुख देखते रहे, प्रभु उनके बीच से रुक्मिनी को ले ऐसे चले कि―

जो बहु कुंडनि स्यार के, परै सिंह, बिच आय।
अपनौ भक्षन लइकै, चलें निडर घहराथ॥

आगे श्रीकृष्णचंद के चलतेही बलरामजी भी पीछे से धौंसा दे, सब दल साथ ले जा मिले।