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भार उतारता हूँ, तू अपने मन मे किसी बात की चिता मत करे। इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि राजा उस काल देवत्ता अपने विमानों में बैठे आकाशसे देखते क्या है, कि

यादव असुरन सो लरत, होत महा संग्राम।
ठाढ़े देखत कृष्ण है, करत युद्ध बलराम॥

मारू बाजता है, कड़खैत कड़खा गाते हैं, चारन जस बखानते है। अश्वपति अश्वपति से, गजपति गजपति से, रथी रथी से, पैदल पैदल से भिड़ रहे है। इधर उधर के सूर बीर पिल पिल के हाथ मारते है औ कायर खेत छोड़ अपना जी ले भागते हैं। घायल खड़े झूमते हैं, कबंध हाथ में तरवार लिये चारो ओर घूमते है, औ लोथ पर लोथ गिरती है तिनसे लोहू की नदी बह चली है, तिसमें जहाँ तहाँ हाथी जो मरे पड़े है सो टापू से जानते है और सूंड़े है मगर सी। महादेव भूत, प्रत, पिशाच संग लिये, सिर चुन चुन मुंडमाल बनाय बनाय पहनते है औ गिद्ध, शाल कूकर आपस मे लड़ लड़ लोथे खैंच खैंच लाते है औ फाड़ फाड़ खाते है। कौए आंखे निकाल निकाल धड़ो से ले जाते है। निदान देवताओ के देखतही देखत बलरामजी ने सब असुरदल यो काट डाला कि जो किसान खेती काट डाले। आगे जरासंध औ सिसुपाल सब दल कठाय, कई एक घायल संग लिये भागके एक ठौर जा खड़े रहे। तहाँ सिसुपाल ते बहुत अछताय पछताय सिर डुलाय जरासंध से कहा कि अब तो अपजस पाय औ कुल को कलंक लगाय संसार मे जीना उचित नहीं, इससे आप आज्ञा दे तो मै रन मे जाय लड़ मरूँ।

नातर हौ करिहौ बनबास। लैंउँ जोग छाँड़ौ सब आस॥